किशोरों को ध्यान में रखकर बनानी होंगी मानसिक स्वास्थ्य नीतियां

किशोरों को ध्यान में रखकर बनानी होंगी मानसिक स्वास्थ्य नीतियां

नरजिस हुसैन

बीते छह साल मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में बेमिसाल कहे जा सकते हैं। बेमिसाल इसलिए कि इसी दौरान मौजूदा सरकार मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी एक खास पॉलिसी और एक ऐतिहासिक कानून लागू करा पाई। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति (एनएमएचपी), 2014 इसी समय में देशभर में लागू की गई और राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल कानून, 2017 भी संसद के दोनों सदनों में पारित हुआ। इन दोनों ही बड़े दस्तावेजों के सहारे सरकार ने देशवासियों को कम खर्च पर बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने का वायदा किया। मानसिक स्वास्थ्य पॉलिसी ने तो एक कदम आगे आकर सबके लिए स्वास्थ्य कवरेज की बात भी की।

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हालांकि, इससे पहले भी सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से लेते हुए 1982 में पहली बार राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य प्रोग्राम की शुरूआत की थी। इसके तहत सबको खासकर उन गरीब लोगों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं देने की बात कही थी जो इलाज का खर्च नहीं उठा सकते थे। तभी, 1993 की विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में मानसिक रोगों के साथ जीने वालों की आबादी डायरिया, टीबी और मलेरिया से भी ज्यादा है। सरकार ने इस बात को ध्यान में रखते हुए नौवीं पंचवर्षीय योजना में जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम 1996  शुरू किया। शुरूआती दौर में यह कार्यक्रम देश के सिर्फ चार जिलों से शुरू किया गया था लेकिन, नौवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक इसे 27 जिलों तक लागू कर दिया गया। जो बाद में 2003 तक 100 जिलों तक पहुंचा। 2009 में इसमें और भी बड़े बदलाव किए गए।

भारत में होती हैं सबसे ज्यादा आत्महत्याएं

यहां यह बात भी समझने की जरूरत है कि रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया, 2012 के मुताबिक दुनिया में जहां हर साल 8 लाख लोग खुदकुशी करते हैं वहीं भारत में हर साल एक लाख 35 हजार लोग अपनी जान देते हैं। इंडियन जनरल ऑफ साइकीयाट्री का कहना है कि भारत में 1987-2007 के बीच आत्महत्या के मामले बड़ी तेजी से बढ़े। इस बीच आत्महत्या की दर प्रति लाख व्यक्ति के पीछे 7.9 (1987) से बढ़कर 10.3 (2007) तक पहुंच गई। उस समय भी आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले दक्षिण और पूर्वी भारतीय राज्यों से आते थे और आज भी यह सिलसिला जारी है। दक्षिण में केरल, कर्नाटक, आंध्रा प्रदेश और तमिलनाडु और पूर्व में पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और मिजोरम आत्महत्या के मामले में देश के अन्य राज्यों से कहीं आगे हैं लेकिन, पुद्दूचेरी और उसके बाद सिक्किम में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं होती हैं।

लैंसेट साइकियाट्रिक रिपोर्ट, 2019 ने भारत में 1990-2017 के बीच देश के अलग-अलग राज्यों के मानसिक स्वास्थ्य का जायजा लिया। एक दशक से भी ज्यादा के समय के रिकार्ड लिए मानसिक स्वास्थ्य पर पहली बार इतनी विस्तार और गहन रिपोर्ट देश के नीति बनाने वालों और संबंधित क्षेत्र में काम करने वालों के सामने आई है। ये बात वाकई चौंकाने वाली है कि देश में 2017 में हर सात में से एक आदमी किसी न किसी तरह की मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। यानी करीब 19.7 करोड़ लोग मानसिक बीमारियों की चपेट में हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि  मानसिक विकारों की यह शुरूआत किशोरावस्था (18 साल से कम) में ही हो रही है।

राष्ट्रीय नीतियों, कार्यक्रमों और कानून का जायजा

मानसिक स्वास्थ्य को लेकर यहां सरकार की नीतियों और योजनाओं की पड़ताल करें तो मालूम होता है कि 2014 और 2017 के अलावा भी भारत सरकार ने मानसिक रोगियों के लिए कुछेक नीतियां बनाई है और लागू भी की हैं। 2014 में नेशनल यूथ पॉलिसी और 2014 में ही राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम। तो कुल मिलाकर सरकार ने इस दिशा में तीन बड़ी राष्ट्रीय नीतियां बनाई और एक कानून पास किया है जो खासतौर से मानसिक रोगियों के इलाज, पुर्नवास, रोकथाम और इसकी जागरुकता के बारे में बात करता है। यह राष्ट्रीय योजनाएं केन्द्र सरकार से अनुदान पाती है और देश में किशोरियों के लिए अलग-अलग तरीके से काम कर रही है।  लेकिन, किशोरों के लिए और भी जो अलग-अलग योजनाएं चलाई जा रही है जैसे किशोरी शक्ति योजना, सर्व शिक्षा अभियान 2011, बालिका स्मृद्धि योजना और राजीव गांधी किशोरी सशक्तिकरण योजना है जो अन्य मुद्दों पर तो बात करती हैं लेकिन, उनमें कहीं भी किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य पॉलिसी औऱ राष्ट्रीय मानसिक देखभाल कानून का मकसद मानसिक स्वास्थ्य संबंधी इलाज और अन्य सुविधाएं पीड़ितों तक पहुंचाना है जबकि सर्व शिक्षा अभियान (जो कार्यक्रम है) देश के सभी छह साल से लेकर 14 साल तक के बच्चों को शिक्षा पहुंचाना सुनिश्चित करता है। लेकिन, स्कूली शिक्षा के जरिए भी सरकार मानसिक स्वास्थ्य को न तो पाठ्यक्रम में जोड़ पा रही है और न ही अलग से ही किशोरों को जागरुक बनाने का कोई इंतजाम है। अब राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम की बात करें तो यही एक ऐसा सरकारी कार्यक्रम है जो किशोरों की सेहत के बारे में खुलकर बात करता है मसलन, उनके पोषण के बारे में, उनकी प्रजनन स्वास्थ्य, नॉन कम्युनिकेबल डिजीज (असंचारी रोग) और मादक पदार्थों के सेवन के बारे में गहनता से बात करता है लेकिन, किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कार्यक्रम खामोश है और न ही उनकी कोई खास भूमिका कार्क्रम में तय की गई है।

राष्ट्रीय युवा पॉलिसी भी युवाओं के संपूर्ण स्वास्थ्य की बात करता है लेकिन, इस पॉलिसी में भी किशोरों को उनके विकास के बारे में कुछ कहने या पॉलिसी स्तर पर कोई राय देने का बंदोबस्त नहीं है। इसी तरह मानसिक स्वास्थ्य देखभाल कानून, 2017 में भी किशोरों के बारे में विस्तार से कहीं कोई जिक्र सरकार करती नहीं दिखती। इसमें रोगियों के इलाज की बात के साथ तमाम अन्य विशेष सुविधाओं की बात की है लेकिन, यहां किशोरों या युवाओं को नीतिगत तौर से शामिल नहीं किया गया है जो शायद कानून की सबसे बड़ी कमी मानी जा सकती है।

इस सारी नीतियों, कार्यक्रमों और कानून को बनाने में सरकार ने विशेषज्ञों, कानूनविदो, स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े लोगों और टीचरों की टीम से  खूब गहन विचार किया। विचारों के इन आदान- प्रदान के बाद ही इन्हें जरूरत के हिसाब से सरकार ने नीति, कार्यक्रम और कानून की शक्ल दी। लेकिन, इस तमाम जद्दोजहद के बाद यह सभी इस हकीकत को पूरी तरह से भूल गए कि जिनके लिए ये विचार विमर्श हो रहे हैं उन्हें भी कहीं-न-कहीं इस पूरी प्रक्रिया में शामिल करते ताकि नीतियों और कानून में पारदर्शिता के साथ सरकार की कल्याणकारी मंशा भी दिखाई पड़ती।

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दिल्ली की मानसिक स्वास्थ्य नीतियों पर एक नजर

जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत दिल्ली सरकार ने इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बीहेवीयर एंड एलाइड साइंसेज (आईएचबीएएस) को 1993 में ही नोडल एंजेसी बनाया था। इसका गठन स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और दिल्ली सरकार के साझा सहयोग से हुआ। यह संस्थान दिल्ली के पांच अलग-अलग जगहों सहित मोबाइल मेंटल हेल्थ युनिट (एमएमएचयू) के जरिए जरूरतमंदों और बेघरों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं दे रहा है। 2011 से ही एमएमएचयू इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बीहेवीयर एंड एलाइड साइंसेज के निंयत्रण में दिल्ली राज्य में काम कर रहा है जहां किशोरों की आबादी 35 लाख है। राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम के सभी प्रावाधान दिल्ली सरकार ने राज्य में लागू किए हैं। देश के अन्य राज्यों में किशोर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रमों या नीतियों में अगर तुलना की जाए तो कर्नाटक ही एक ऐसा राज्य है जहां युवा स्पंदना नाम की किशोरों की मानसिक स्वास्थ्य नीति है जिसमें काफी विस्तार से किशोरों के तमाम स्वास्थ्य संबंधी (मानसिक भी) मुददों के बारे में बात हुई है। दिल्ली, केरल और कर्नाटक और गुजरात ही ऐसे राज्य हैं जहां की सरकारों ने किशोर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रमों को अन्य मंत्रालयों या विभायों के कार्यक्रमों से जोड़ने की कोशिश की है। लेकिन, वित्तीय मदद और विभागीय तालमेल में अभाव की वजह से इसका असर दिल्ली, गुजरात और केरल को देखना पड़ा।   

किशोरों और युवाओं के स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी सभी राष्ट्रीय स्तर की नीतियां और कार्यक्रम दिल्ली में लागू हैं और जारी हैं। जिसमें राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम भी शामिल है। किशोरों के स्वास्थ्य से संबंधित मानसिक स्वास्थ्य की कोई अलग नीति या कार्यक्रम राज्य में नहीं है। यहां स्कूलों में काउंसिलर का प्रावाधान है लेकिन, मानसिक स्वास्थ्य स्कूल के पाठ्यक्रम में नहीं है। हैप्पीनेस करिकुलम तो है लेकिन, वहां मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरुकता की बात नहीं है।  

एक नजर राज्य के बजट पर अगर डाले तो मालूम होता है कि 2019-20 के दिल्ली राज्य के बजट में स्वास्थ्य को 7,485 करोड़ रुपए दिए गए हैं जो कुल बजट का 25 फीसद हिस्सा है। हालांकि, देश के अन्य राज्यों के मुकाबले दिल्ली सरकार दिल्लीवासियों की सेहत का बेहतर ध्यान रख रही है लेकिन, इस पूरी प्रक्रिया में मानसिक स्वास्थ्य को अलग से कुछ नहीं मिला।

देश की राष्ट्रीय नीतियों, कार्यक्रमों और कानून में किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य, अधिकार और उनको इसमें शामिल करने की जो पहल होनी चाहिए थी वह नहीं है। नीतियों, कानून और कार्यक्रमों में सरकार किशोरों को शामिल तो जरूर कर रही है लेकिन, जितनी तेजी से देश में किशोरों में आत्महत्या का ग्राफ बढ़ रहा है उसके मद्देनजर इनकी खास जरूरतों की कहीं-न-कहीं आज भी अनदेखी हो रही है।

बजट में मानसिक स्वास्थ्य

2018-19 के केन्द्रीय बजट में नेशनल मेंटल हेल्थ प्रोग्राम को 50 करोड़ रुपए मिले थे जो 2017-18 के बजट से मात्र 15 करोड़ ज्यादा थे। ये तब जब बेंगलुरू के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ (निमहैन्स) ने एक अध्ययन में कहा था कि देश में 13.7 प्रतिशत लोग अलग-अलग मानिसक विकारों से पीड़ित हैं। 2011 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया था कि भारत में मानसिक रोगियों की तादाद को देखते हुए मनोचिकित्सकों, नर्सो और काउंसिलर का भारी अभाव हैं। 2018-19 के बजट में निम्हैंस को सरकार का फंड 350.94 करोड़ से बढ़ाकर 382.6 करोड़ जरूर किया गया लेकिन, असम के तेजपुर स्थित लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ का फंड 80 करोड़ से घटाकर 60 करोड़ कर दिया।

बजट 2020-21 में स्वास्थ्य क्षेत्र को जो 69,000 करोड़ रुपए सरकार ने दिए हैं उनकी अगर पिछले बजट से तुलना की जाए तो यह महज 4.1 प्रतिशत ज्यादा मानी जा रही है। इसे अगर विभागीय स्तर पर देखा जाए तो स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 65,012 करोड़ रुपए, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग को फंड किए जबकि स्वास्थ्य रिसर्च विभाग के खाते में 2,100 करोड़ रुपए आए और आयुष मंत्रालय को 2,122 करोड़ रुपए आवंटित हुए। सरकार ने जो भी थोड़ा खर्च करने की हिम्मत दिखाई वह प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना को देखकर लगा। बाकी केन्द्र के साथ मिलकर राज्यों में जो स्वास्थ्य की योजनाएं चल रही हैं उनको न तो कुछ मिला और न ही उन्होंने कुछ गंवाया। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने इस बजट का फोकस स्वास्थ्य क्षेत्र का बुनियादी ढांचा ठीक करना, डाक्टरों और संबंधित मेडिकल स्टाफ की कमी पूरी करना और संपूर्ण स्वास्थ्य  बताया।

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तो इस तरह मौजूदा बजट ने मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वालों का हाथ इस बार फिर खाली रखा। सरकार को अब यह गंभीरता से समझना होगा कि अपनी तमाम नीतियों, कार्यक्रमों और कानून को सिर्फ बनाने भर से काम नहीं चलने वाला। सरकार की नीयत अच्छी हो सकती है लेकिन कार्यक्रमों के अमल में आ रही परेशानियों से वह बेखबर न रहे। दूसरा, पॉलिसी, प्रोग्राम और कानून तभी कारगर होते हैं जब उनमें जरूरत के हिसाब से पैसा खर्च किया जाए। नीतियां और कार्यक्रम बनाना, उनपर पैसा खर्च कर उनके अमल का लेखा-जोखा जब तक सरकार नहीं रखेगी शिकायतों का यह सिलसिला यूं ही जारी रहेगा।

 

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